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मांञ् (खोरठा कविता) रमेश कुमार

मांञ्
             कवि : रमेश कुमार महतो

माञ्! माञ्! माञ् !
तोर दूधेक रीन हामे,
कभू सोधे पारब नाञ् !
      हामर गूँह-मूतेक नूड़ा
      उठावले आपन हाँथें,
      घीन-बास लागल नाञ्
       हामर लेल तोर गाते |
घार कारना करले माञ्
हामरा लइके कोरें काँखे,
हामर सुखेक लेल तोञ्
राखले आपन दुख नुकाय || माञ्..|
       जाड़ेक समइ कनकनीं जखन
      काँपइत हतोव तोर गात,
      पेटेक तरें सुखे सपटाय
      राखइत हबें सारा राइत |
निजें रइहके भूखे,हामरा
खियवल हबें पेट भोइर,
ढ़ाइप तोइपके राखल हबे
निजेक साध-हिंच्छा तोइर |
       तोर छाड़ा जिंदगीं हामर
       केउ भगवान कोन्हों नाञ् || माञ्..|
आपन कोखे राखले माञ्
हामरा नौ - दस  मास,
पेटेक भीतरे खियाइ पोंसलें
आपन गातेक रकत-मांस |
      तोर सिरजले हामे पाइलो
      तोरा माञेक रूपे खाँटी,
      हामर गाते मास चढ़ाइले
      निजेक रकत-मांस बाँटी |
तोर रूपें देखे पाइलों
हाम गोटे दुनियाइ || माञ्..|
       सास-ससुर, ननद सबके
       सहइत हबे गाइर-माइर,
       गोरु-लेरु घार कारना सब
       करइत हबे सभे साइर |
हामर करल गुन्हाक लेल
तोञ् कते सुनल हबे बात,
कते  बेर  रागें - रुसे 
तोर पड़ल हतोउ गात |
       तोञ् सिरजले हामरा
        हामें पइलो तोरा माञ्,
        नेम-बरत तीरिथ-पूजा
        तोहीं हामर गोटे दुनियाय || माञ्..|