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बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं : सुकुमार जी

*बहुमुखी प्रतिभा के धनी है लोक गायक सुकुमार*झारखंड की धरती खनिज संपदा से ही समृद्व नहीं है, बल्कि यहाँ की धरती पर कई प्रतिभा सम्पन्न कलाकार भी बसते हैं। उन्ही में से एक हैं खोरठा जगत के चर्चित लोकगायक व साहित्यकार सुकुमार। लोक गायक और साहित्यकार के रूप में सुकुमार स्थापित हो चुके हैं उनके कंठ और कलम में जैसे सरस्वती वास करती है। सच कहा जाए तो उन्होंने गुदड़ी के लाल कहावत को चरितार्थ करते हुए खोरठा के उत्थान के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया है। खोरठा जगत में सुकुमार जी की स्वीकार्यता आज एक श्रेष्ठ लोक गायक कवि और रचनाकार के रूप में चतुर्दिक बन चुकी है । आज इन्हें लोकसत्ता का गायक कवि कहा जाने लगा है । लोकसत्ता जो शहरों या महानगरों में नहीं बनती है। यह 'लोक' गांव की आत्मा है। टोले-मोहल्ले के धुसर-मटमैलो का सच्चा यथार्थ है । सुकुमार जी के गीत कविता और नाटकों में जीवन का साधारणपन, मनुष्य का बहरूपिया चेहरा और जीवन से संघर्ष करते, हारते-पराजित होते चेहरे भी चमकते दिखाई देते हैं।सुकुमार के व्यक्ति को संस्कार देने में सीधा-सरल व्यवहार रचने में और सबको अपनी नजदीकी से पानी की तरह सुख देने में दूसरी सबसे बड़ी भूमिका झारखंड के रूप, रस, गंध,स्वाद, और दर्शन से भरी प्रकृति की रही है । इनके भीतर का कवि गायक और गीतकार मानव उस प्रगतिशील विचारधारा के निर्मित भी है, जिसे उन्होंने जमीन प्रेमी ह्रदय के व्यापक अनुभवों से हासिल किया है। मार्मिक सहजता कठिन सिद्धि है, जो कवि के दुर्लभ सहज व्यक्तित्व से संभव होती है। उसी सहजता में जीवन-दर्शन और नए विचारों का प्राण धड़कता है।कवि -गायक- गीतकार और नाटकार सुकुमार जी ने खोरठा के प्रति समर्पण भरे जिस परिश्रम के साथ स्वयं को साधा है , अपने अंतश्चेतना को जमीन का स्वभाव दिया है, अपनी भावनाओं को पानी बनाया है और अपनी सांस-दर-सांस को आम जीवन के संदर्भ से एकाकार कर डाला है, वह उनके जैसा रचनाकार इस संस्था से रचनात्मकता को प्रभावित कर सकता है| सुकुमार उन खोरठा रचनाकारों में है, जिन्होंने समय से सीखने के लिए नहीं बल्कि समय को सिखाने के लिए सृर्जन का रास्ता चुना | इन्होंने ऐसे किसी नए सांचे में समकालीन रचनाओं को नहीं डाला किंतु इन्होंने आज के और आने वाले कल के शिक्षित, प्रबुद्ध, प्रतिबद्ध और साहित्य प्रेमी पाठकों के लिए गीतों और कविताओं का विस्तृत मैदान अवश्य सौंपा है | लगभग 35 वर्षों की उनकी काव्य यात्रा समकालीन रचनाओं की उम्र का रूपक रचती है । सुकमार, शब्दों के नहीं, शिल्प कला और चमत्कार के भी नहीं बल्कि अर्थ के, दृष्टि के, भाव-रस- अनुभूति और चित्त के चितेरा हैं। सहजता के दुर्लभ शिल्पकार हैं | इनकी रचनाएं ह्रदय स्पर्शी सहजता और अपना बना लेने वाली भाव प्रनवता से लबालब भरी हुई हैं | इनकी रचनाएं खेमेबाजों के लिए नहीं और न ही आलोचकों के लिए हैं, बल्कि उनकी रचनाओं का पहला और अंतिम लक्ष्य पाठक- दर्शक और श्रोता है | इनकी रचनाएं जीते-जागते, हंसते-रोते, जी-जी कर मरते लड़ते हारते, संघर्ष करते लोगों के लिए हैं | वैसे लोग जो साहित्य के गौरव की रक्षा करते हैं । जो लोकगीतों को अपने संस्कार के विस्तार का मूलभूत तत्व मानते हैं और सुकुमार ऐसे ही खोरठा भाषी देशज लोक सहित के शिल्पकार हैं | खोरठा साहित्य, संस्कृति के विकास में अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले शख्स का नाम है *'सुकुमार'* जैसा नाम वैसा शक्ल स्वभाव! इनका वास्तविक नाम है- सुरेश कुमार विश्वकर्मा परंतु साहित्य कला जगत में उन्होंने अपना नाम रखा है- ''सुकुमार'' | *जीवन*सुकुमार का जन्म झारखण्ड के बोकारो जिला के नावाडीह प्रखंड अंतर्गत 'शैफिल्ड ऑफ झारखंड' नाम से अलंकृत लौह नगरी भेंडरा के एक अति दीन परिवार में दिनांक- 2 नवंबर 1956 को हुआ । इनकी माता का नाम स्वर्गीय राधा देवी तथा पिता का नाम श्री विश्वनाथ विश्वकर्मा है। इनका विवाह सन 1984 में गोविंदपुर (धनबाद) निवासी स्वर्गी ईश्वर लाल विश्वकर्मा की पुत्री श्रीमती बेबी देवी से हुई। जिनका सहयोग साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्रा में इन्हें हमेशा मिलता रहा है। इनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई तथा राज्य संपोषित उच्च विद्यालय भेंडरा से इन्होंने सन 1972 में मैट्रिक पास किया। तत्पश्चात सन 1976 में आई.टी.आई धनबाद से तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर लघु सिंचाई विभाग में दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी के रूप में गिरिडीह प्रमंडल अंतर्गत डुमरी में पदस्थापित हुए। सन् 2011 में इनको सेवा विभाग ने नियमित किया तथा गंगा पंप नहर प्रमंडल, साहिबगंज में उपस्थित होकर 30 नवंबर 2016 को सेवानिवृत्त हो गए | सुकुमार जी का झुकाव छात्र जीवन से ही खोरठा साहित्य और संगीत के प्रति था | इनके गांव में एक संस्था 'नवीन बाल समिति' के नाम से सन 1965 से ही समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय थी। अस्सी के दशक में इन्हें संस्था का सचिव बनने का मौका मिला तथा इन्होंने सन 1983-84 में इसका रजिस्ट्रेशन सोसाइटी एक्ट के तहत कराया। इसके पूर्व भी इस संस्था से जुड़कर इन्हें दर्जनों नाटकों में अभिनय तथा निर्देशन करने का अवसर मिला। यह एक अच्छे गायक भी थे । जहां इनकी रुचि परवान चढ़ी । इन्हें दिनों उन्होंने हिंदी में कई उपन्यास (अप्रकाशित) तथा कई नाटक भी लिख डाले | इनका पहला नाटक 'हरिश्चंद्र तारामती' के नाम से सन 1980 में उर्मिला प्रकाशन, भागलपुर से प्रकाशित हुआ | तत्पश्चात क्रमशः हिंदी के कई नाटक समय-समय पर उक्त प्रकाशन संस्था से प्रकाशित होती चली गयी । जिसमें 'ज्वाला दहेज की', 'दो भाई', 'सिकंदर-ए-आजम' मुख हैं | खोरठा के पुरोधा श्रीनिवास पानुरी का भेंडरा में रिश्तेदारी रहने के चलते उनका भेंडरा आना-जाना लगा रहता था। एक दिन कवि सुकुमार की मुलाकात उनसे हो गई। पानुरी जी सुकुमार की साहित्यिक सेवा से अत्यधिक प्रभावित हुए तथा कहा "सुकमार तुम्हारा साहित्य के प्रति लगन देख मैं बहुत खुश हूँ। परंतु इस कार्य को अपनी मातृभाषा खोरठा में करते तो और ज्यादा अच्छा होता,।" यह बात सुकुमार के दिल को छू गई। यह वर्ष 1983 का था | तत्काल सन 1984 मार्च में अखबार में एक समाचार आया। ''खोरठाक एगो गहगहउवा सांइझ" आयोजक- खोरठा ढाकी छेतर कमिटी कोठार, रामगढ़ | समाचार पढ़कर इनका मन इसमें भाग लेने के लिए तड़प उठा | वहां से संपर्क करने पर आयोजकों द्वारा भाग लेने हेतु नेवता इन्हें दिया गया | नेवता मिलने के बाद उस कार्यक्रम में भाग लेने के लिए सुकुमार जी पहुंचे | इस सम्मेलन में सुकुमार जी को एक गीत गाने का मौका मिला । इन्होंने अपनी स्वरचित खोरठा गीत सुनाया "की दुखे तो राखी लोर गे धनी" इस गीत के साथ और भी गीत इन्होंने गाए | उनके गाए इन खोरठा गीतों ने यहां तहलका मचा दिया | सुकुमार खोरठा गीतकार और गायक के रूप में प्रथम शख्स थे जिसे सभी ने नोटिस लिया। इस कार्यक्रम में भाषाविद डॉ रामदयाल मुंडा मुख्य अतिथि के रूप में आए हुए थे। उन्होंने अपने गले का हार सुकुमार को पहना दिया तथा सुकुमार को रांची रेडियो में आने को कहा।अब तक सुकुमार खोरठा में एक नाटक लिख चुके थे **डाह* | इसी बीच इनकी मुलाकात खोरठा के जाने-माने साहित्यकार डॉ.अजित कुमार झा से एक कार्यक्रम में हुवा। डॉ एके झा इसकी पांडुलिपि को अपने साथ लेते गए थे,चूंकि रांची विश्वविद्यालय में जनजातियों क्षेत्रीय भाषा विभाग की स्थापना हो चुकी थी । फलस्वरुप पुस्तकों का अभाव था । इस नाटक का एक अंक इंटरमीडिएट कोर्स में डाल दिया गया। फिर से विभिन्न कोर्सों के साथ जे।जे.पी.एस.सी में भी शामिल किया गया। परंतु 'डाह' पुस्तक के रूप में आकार ले पाया सन 1992 में। जिसका दूसरा संशोधित संस्करण पुनः प्रकाशित हुआ 2010 में। सुकुमार के 'डाह' का उच्च कोर्सों में लगना इन्हें आंदोलित करता रहा। फलस्वरुप इन्होंने सन 1993 में झारखंड कॉमर्स कॉलेज डुमरी से स्वतंत्र छात्र के रूप में इंटरमीडिएट तथा झारखंड कॉलेज डुमरी से सन 1996 में मानव शास्त्र संख्या से प्रथम श्रेणी से स्नातक किया। इस बीच इनकी कई रचनाएं आई। सन 1993 में इनके खोरठा गीतों का एक संकलन छप कर आया- *पइन सोखा* जो की एम. ए. कोर्स में शामिल है। इसके अलावा सन 2000 में सेंवाती, सन 2004 में झींगुर तथा सन् 2010 में छपी मदन भेरी | इन तीनों गीत संकलनों में सुकुमार के अलावा खोरठा क्षेत्र में स्थापित अन्य कलाकारों को भी शामिल किया गया है । पुनः सन 2009 में इनका एक खंड काव्य आया *'बावां हाथेक रतन'* जो डॉक्टर भीमराव अम्बेदकर की जीवनी पर आधारित है | सुकुमार जी सन 1985 में आकाशवाणी रांची से जुड़कर बतौर लोकगीत गायक एवं कवि के रूप में अब तक हजारों गीत गा चुके हैं | ये आकशवाणी राँची के बी. हाई ग्रेड लोक कलाकार हैं। इन्हें उदघोषक की बहाली में भी बोर्ड के सदस्य के रूप में आकाशवाणी द्वारा मनोनीत किया जा चुका है। खोरठा जगत का पहला ऑडियो कैसेट देने का श्रेय भी इन्हें ही जाता है। सन 1999 में खोरठा जगत का पहला ऑडियो पिरित के मरम' नाम से आया। इसके बाद *'पिया रसिकवा'* सन 2001 में *फुलवा रानी* 2004 में तथा फरीछ डहर 2007 में आया | इनका प्रथम ऑडियो आते ही कैसेटो की बाढ़ सी आ गई। पर इन्होंने अपने गीतों का स्तर गिरने नहीं दिया | सन 2003 में इनकी एक विवादास्पद रचना छपी लालचंद चरित मानस तत्कालीन ऊर्जा मंत्री श्री लालचंद महतो जी के जीवन वृत्त पर आधारित था । इस रचना के कारण मीडिया में इनकी काफी आलोचना हुई | इनके द्वारा लिखित एक गीत *मांदर बाजे रे*....... झारखंड की कालजयी गीत बन चुका है। 15 नवंबर 2000 को जब झारखंड अपने अस्तित्व में आया उस दिन स्थानीय अखबार प्रभात खबर का रांची संस्करण इनके इस गीत को अपने अखबार के अंतिम पृष्ठ पर फूल स्केप में नयनाभिराम सजा के साथ छापा | यह गीत अनेक संकलनों एवं पत्रिकाओं में समय-समय पर स्थान पाता रहा है | सुकुमार अपने साक्षात्कार में कहते हैं कि करीब ढाई दशक पहले जब मांदर बाजे रे गीत की रचना की थी तब उन्हें भी इसका अंदाजा नहीं था कि उनकी यह उनकी यह गीत कालजई गीत बन जाएगा,और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि पाएगा। इस गीत की सबसे बड़ी खासियत यह है कि प्रमुख झारखंडी पर्वो की पूरी संस्कृति इस एक ही गीत में प्रतिबिंबित हो उठती है। अमूमन झारखंडी पर्वों में हम मुख्यतः करमा, सोहराय, सरहुल, बाउंडी का नाम लेते हैं | झारखंडी संस्कृति के प्रतीक इन पर्वों में इनकी विशेषताओं को दर्शाने वाले अनेक गीतों का रचना विभिन्न भाषाओं में अनेक गीतकार अपने अलग-अलग गीतों में कर चुके हैं । लेकिन सुकुमार ने 'मांदर बाजे रे' शीर्षक एक ही गीत में जिस लाजवाब तरीके से सभी पर्व-संस्कृति को समाहित किया। यह इनकी विलक्षण रचनाशीलता एंव झारखंडी संस्कृति के प्रति उनका समाज को दर्शाता है। यह गीत विश्व स्तर पर लोकप्रिय उस समय हुआ जब 2003 में मुंबई में 146 देशों के प्रतिनिधि की मौजूदगी में आयोजित वर्ल्ड सोशल फोरम के सम्मेलन में इसे गाया गया। सम्मेलन में झारखंड के बोकारो जिला के कश्मार निवासी बहुमुखी प्रतिभा के धनी शेखर भारतेंदु जैसे कलाकार ने इस गीत की शानदार प्रस्तुति की, यह विदेशी प्रतिनिधियों की जुबां पर चढ़ गई| 'सुकुमार' एकला चलो सिद्धांत के पक्षधर रहे हैं | यही कारण है कि अपने साहित्यिक सांस्कृतिक यात्रा में कभी पीछे या दाएं बाएं नहीं देखा, बल्कि अपनी धुन में सतत अग्रसर होते रहे | इन्होंने कई पदयात्राएं भी की जिसमें दामोदर-पारसनाथ बंउड़ी डहर यात्रा (14-15 जनवरी 1989) तथा फागुन डहर यात्रा, (दामोदर से सेंवाती पहाड़) 5 मार्च 1994 मुख्य हैं |'सुकुमार' के अनेक लेख जहांस्थानीय दैनिक हिंदुस्तान, प्रभात खबर, राँची एक्सप्रेस में समय-समय पर छपते रहे हैं। वहीं खोरठा कोर्स की पुस्तकों में इनकी रचनाओं का स्थान दिया गया है । इसके अलावा अनेक हिंदी एवं खोरठा के पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर छपते रहे हैं | भले ही इनकी कलम साहित्य की कई विधाओं में चली है, परंतु मूल रूप में सुकुमार एक गीतकार एवं गायक के रूप में अधिक जाने जाते हैं। यह मानवादी विचारधारा के पोषक रहे हैं। यही कारण है कि इनके गीतों में समता, सहकारिता, देशभक्ति, माटी प्रेम, पर्यावरण संरक्षण, प्राकृतिक सौंदर्य, नारी सम्मान, सुख दुख के क्षणों में एक दूसरे का सहयोग करने का भाव, प्रकृति वर्णन, अंधविश्वास का अभाव, पर्व-त्यौहार, संस्कार की गरिमा, क्रांति, उलगुलान, जन जागरण आदि का भाव साफ परिलक्षित होता है | इनके गीत जनमानस में समाहित होकर लोकगीत बन चुके हैं। सुकुमार को लेकर महुआ पत्रिका के प्रवेशांक में संपादक शिरोमणि महतो ने लिखा "सुकुमार खोरठा भाषा के भिखारी ठाकुर माने जाते हैं। ये एक साथ अच्छे गायक, कवि गीतकार, नाटककार उपन्यासकार, एवं चित्रकार भी हैं"। सच तो यह है कि अपनी भाषा और संस्कृति की सेवा सुकुमार के जीने का मकसद बन चुका है। खोरठा साहित्य संस्कृति परिषद जो एक निबंधित केंद्रीय संस्था है , सुकुमार जिसके प्रबंध सचिव रह चुके हैं नावाडीह में सन 2000 में सहिया मिलन नामक संस्था का गठन कर इसके निदेशक 'सुकुमार' ने पूरे क्षेत्र में अंधाधुन प्रोग्राम देना शुरू किया था।जिसमें अनेक प्रतिष्ठित रेडियो, टीवी कलाकार जुड़े हुए थे। *सम्मान*सुकुमार की साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सेवा को ध्यान में रखकर वर्ष 1993 में बोकारो खोरठा कमेटी द्वारा आयोजित टेलीडीह चास के एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि दिशुम गुरु श्री शिबू सोरेन के कर कमलों द्वारा इन्हें *खोरठा रत्न* की उपाधि देकर सम्मानित किया गया | पुनःबिहार सरकार द्वारा आयोजित गांधी मैदान पटना में वर्ष 1997 युवा सांस्कृतिक महोत्सव में इन्हें प्रशस्ति पत्र एवं शाल भेंट कर सम्मानित किया गया। इनकी निःस्वार्थ सेवा के नियमित संस्था झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा रांची द्वारा गोस्सनर कॉलेज में रांची में आयोजित एक कार्यक्रम में 12 फरवरी 2006 को इन्हें *अखड़ा सम्मान* से नवाजा गया | वर्ष 2007 में 15 अगस्त के दिन मोराबादी मैदान में आयोजित सम्मान समारोह में तत्कालीन मुख्यमंत्री झारखंड, श्री मधु कोड़ा के कर कमलों से कला संस्कृति खेलकूद एवं युवा कार्य विभाग द्वारा संस्कृति के क्षेत्र में सराहनीय कार्य करने के निमित्त निमित्त इन्हें सांस्कृतिक सम्मान पत्र, सम्मान राशि तथा शाल भेंट कर सम्मानित किया गया।आज झारखंड राज्य में सर्वाधिक बोले जाने वाली लोक भाषा खोरठा जिस मुकाम पर खड़ी है। उसमें सुकुमार की अहम भूमिका को भुलाना असंभव है । एक नितांत गरीब और अभावग्रस्त परिवार में जन्म लेकर लोक साहित्य एवं संस्कृति की सेवा जैसे जटिल कार्य में अपनी पूरी जिंदगी झोंकते हुए हर परिस्थिति में चट्टान की तरह अडिग रहकर कार्य करना सुकुमार जैसे लोगों के बस की ही बात हो सकती है ।
 *सन्दर्भ ग्रंथ*
1.लुवाठी पत्रिका अंक
2. आदिवासी पत्रिका 
3.दैनिक हिंदुस्तान,धनबाद
4.राँची एक्सप्रेस,धनबाद
4.प्रभात खबर, 
5.सेंवाती
6.बावां हाथेक रत्न
7.डाह-सुकुमार
8.झींगुर-सुकुमार
9.मदन भेरी-- सुकुमार
10.सोहान लागे रे--
11. महुवा पत्रिका--
12.साक्षात्कार सुकुमार -एम.एन गोश्वामी-
डॉ.बी. एन. ओहदार
-नागेश्वर महतो-
ओहदार अनाम (शोधार्थी)जनजातीय एवं छेत्रीय भाषा विभाग, राँची विश्वविद्यालय राँची, झारखण्डमोबाईल नम्बर- 9835327669ईमेल:- ohdaranam@gmail.comमेजर डॉ. महेश्वर सारंगी ( शोध निर्देशक)सहायक प्राध्यापक, मारवाड़ी कॉलेज, राँची विश्वविद्यालय राँचीमोबाईल नंबर.9431771244